फोटोग्राफी

फोटोग्राफी का अर्थ है - प्रकाश से किसी संवेदीपटल पर लिखना। यानी कैमरे में जो कुछ दिख रहा है, उसे हूबहू वैसे ही इसके जरिए कैद किया जाना। सवाल यह है कि फोटोग्राफी को फिर कला क्यूं कहा जाए? यह सही है कि जो कुछ दिख रहा है, उसे वैसे ही प्रस्तुत करने का कार्य ही कैमरा करता है परन्तु इतना ही सच यह भी है कि कैमरे में जब जीव-जगत और प्रकृति के अंतरसंबंधों की सूक्ष्म और सार्थक अभिव्यक्ति संवेदना के जरिए होती है तो वह कला का रूप ले लेती है। नंगी आंखों से देखे सच से परे जाकर जब कैमरे से किसी दृश्य के बिम्ब, उससे पडने वाले प्रभाव और दृश्य में अंतर्निहितविचार को अभिव्यक्ति दी जाती है तो वह कला बन जाती है।मारवाड़ के रंग अमीरी गरीबी के साथ संजो कर आपके सामने रख रहा हू

'माँ तुझे सलाम है'

प्रकृति का हरेक प्राणी जन्म लेते ही जिस रिश्ते से प्रथम परिचित होता है, वह है माँ-बच्चे का रिश्ता... माँ और बच्चे का संबंध वास्तव में इतना अटूट है कि उसे याद करने या 'सेलीब्रेट' करने के लिए हमें 'मदर्स डे' जैसे कई दिन को निश्चित करने की आवश्यकता नहीं होना चाहिए।




"कदे घी घना ,ने कदे मुठी चना "
यही हालत मारवाड में बरसात की है


बारिश में हिचकी क्यों आती है... कई साल पहले मेने मम्मी से ये सवाल पूछा था!
"मुझे क्या पता...उन्हें बारिश से एलर्जी होगी.
आज यही सवाल मुझे भगवान से पूछने का मन कर रहा है
" तुम बताओ न..मम्मी को हिचकी क्यों नहीं आती है?"












फुरसत का नाम - बुढ़ापा

अरे मजाल है किसी की,
जो करे हमारी नाक में दम !
बाजुओ का दम हुआ कम
तो क्या हुआ, नहीं कोई गम !!
बालो को रंगते हुए आखिर,
हमने उड़ा ही दिया बालो को !
य़ू ही नहीं लैन में लगाया,
इतने सारे घर वालो को !!
अरे यारो, जरा रुकिए...
सोचिये, बुढ़ापे का वो आराम !
न कोई धंदा, न कोई काम
सब कामो से कर क़े राम राम !!


भार जिन्दगी का

खुरापाती वैज्ञानिकों ने न जाने किन उल-जुलूल परीक्षणों के आधार पर आत्मा का वजन निकाल लिया। पहले एक इंसान का मरने के पूर्व वजन किया और फिर मरने के उपरांत। दोनों में २१ ग्राम का फर्क आया। बस इसी आधार पर घोषणा कर दी कि आत्मा का वजन २१ ग्राम है।
छोड़ो इन आत्मा वात्मा के चक्कर ,असली जिन्दगी में दिलो दिमाग में कितना फालतू वजन भरा पड़ा है ये इनको पता नहीं है ।
मेरे फोटो देख कर प्रेमी कहता है ...

धरती कितना ढोती वजन !
आकाश कितना भारी हो गया !
तुम्हारे पाँव में बांध दिए पत्थर
तुम कितनी दोरी चलती हो मेरी साथिन


मुझे लिखना तो बस ऐसा ही आता है ,बस फोटो निहारे , उनके दुःख दर्द व् खुशियों का आनंद ले।



है।


चिंतन-मनन के पार का सत्य

चिंता मनुष्य को अन्दर से खा जाती है , पर आज के युग में मानसिक अवसाद किसे नहीं है, अमीर गरीब सब परेशान है । महंगाई , बीमारी ,घरेलु , आर्थिक .........बस इस दुनिया में राहत नहीं है। चलो अकेले बैठ कर मेरे फोटो के नायक भी सोच रहे है , मै भी कुछ सोचता हु , आप भी इनको देख कर सोचना .....और क्या करे











दरवाजा कितना है खास,

पट यानी दरवाजा ,
ये दरवाजा कभी बंद अच्छा होता है कभी खुलने पर ।
ये दरवाजा घर की मान मर्यादा,प्रेम ,उलझन , झगडे आदि को अपने अन्दर बंद रखता है ।
ये दरवाजा बड़ा हो तो ,इसके अन्दर भी बड़े हो , यह जरुरी नहीं है ।
कबीर दास ने कहा था -
सुमिरन सुरति लगाय के ,मुख ते कछु न बोल ,
बाहर के पट देय के ,अन्दर के पट खोल ।








पुरानी परम्पराए....कभी हा ,कभी ना

हमेशा पुरानी परम्पराए गलत नहीं होती ,उन्हें बदलने की जरुरत भी नहीं पड़ती ,कुछ मिथ्या व भ्रामक विचार होते है जिसमे पुरानी परम्पराओ को कोसा जाता है । इन फोटो के माध्यम से में यह जताने की कोशिश करना चाहता हु की क्या ये स्वाद ,सोंदर्य आदि नई तकनीको से पाया जा सकता है ? बेशक समाज की उन गलत परम्पराओ को बदला जाए जिसमे शोषण की बू आती हो । ....इस भाग भरी जिन्दगी में कभी इनका भी आन्नद लेने में कतई न चुके ...मै तो जिन्दगी के हर पल को पुराने व नए ढंग से जीने की कोशिश करता हु ,नतीजा मस्त हु ...ओर क्या !!


Jalore in a Glance

Jalore

Jalore
Jalore Fort
जालोर की आन-बान-शान का प्रतीक जालोर दुर्ग आज भी अपने शौर्य की गाथा गाता है। यह दुर्ग राज्य सरकार के पुरातत्व विभाग की धरोहर है एवं वर्ष 1956 से संरक्षित स्मारक है। जालोर दुर्ग पर जाने के लिए शहर के मध्य से ढेडी-मेडी गलियों से होकर जाना पड़ता है।जालोर दुर्ग नगर के दक्षिण में 1200 फीट ऊंची पहाडी पर स्थित है। दुर्ग में जाने के लिये एक टेढा-मेढा पहाडी रास्ता जाता है जिसकी ऊँचाई कदम-कदम पर बढ़ती हुई प्रतीत होती है। इस चढ़ाई को पार करने पर प्रथम द्वार आता है जिसे सूरजपोल करते है। धनुषाकार छत से आच्छादित यह द्वार आज भी बडा सुन्दर दिखाई देता है। इस पर छोटे-छोटे कक्ष बने हुए हैं जिनके नीचे के अन्त:पाश्र्वो में दुर्ग रक्षक रहा करते थे। तोपों की मार से बचने के लिये एक विशाल दीवार घूमकर दरवाजे को सामने से ढक लेती है। यह दीवार लगभग 25 फीट ऊँची तथा 15 फीट मोटी है। इस के पश्चात लगभग आधा मील चलने पर दुर्ग का दूसरा द्वार आता है जो धु्रुव पोल कहलाता है। यहां की नाकेबन्दी भी बडी महत्वपूर्ण थी। इस मोर्चे को जीते बिना दुर्ग में प्रवेश असंभव था।तीसरा द्वार चान्दपोल कहलाता है जो अन्य द्वारों से अधिक भव्य, मजबूत एवम् सुन्दर है। यहां से रास्ते के दोनो तरफ साथ चलने वाली प्राचीर कई भागों में विभक्त होकर गोलाकर सुदीर्ध पर्वत प्रदेश को समेटती हुई फैल जाती है। तीसरे से चौथे द्वार के बीच का स्थल बडा सुरक्षित है। चौथा द्वार सिरे पोल कहलाता है। यहां पहुचने से पहले प्राचीर की एक पंक्ति बाई ओर से ऊपर उठकर पहाड़ी के शीर्ष भाग को छू लेती है ओर दूसरी दाहिनी ओर घूमकर गिरि श्रृंगो को समेटकर चक्राकार घूमती हुई प्रथम प्राचीर से आ मिलती है।किले की लम्बाई पौन किलोमीटर तथा चौड़ाई लगभग आधा किलोमीटर है। इस समय यहां राजा मानसिंह का महल, दो बावडियां, एक शिव मिन्दर , देवी जोगमाया का मिन्दर, वीरमदेव की चौकी, तीन जैन मिन्दर, मिल्लकशाह दातार की दरगाह तथा मिस्जद स्थित है। जैन मिन्दरो में पाश्र्वनाथ का मिन्दर सबसे बड़ा एवं भव्य है। इस मंदिर के पीछे दीवारों पर अंकित मूर्ति शिल्प बेजोड़ है जो कि दशZको को सर्वाधिक आकषिZत करता है।चौमुखा जैन मिन्दर से मानसिंह के महलों की ओर जाते समय ठीक तिराहे पर एक परमारकालीन कीर्ति स्तंभ एक छोटे चबूतरे पर आरक्षित स्थिति में खडा है। संभवत: परमारों की यही अन्तिम निशानी इस किले में बची है। मानव आकृति के कद का लाल पत्थर का यह कीर्ति स्तंभ अपनी कलापूर्ण गढ़ाई के कारण बरबस ही पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता हैं। वषो पूर्व यह स्तंभ किसी बावड़ी की सफाई करते समय मिला था, जिसे यहां स्थापित कर दिया गया है।( 2 )
मानसिंह के महलों में प्रवेश करते ही एक विशाल चौकोर सभा मण्डप आता है। जिसके दायीं ओर एक हॉल है। इस हॉल में एक टूटी-फूटी तोप गाड़ी व एक विशाल तोप पड़ी है। कुछ तोपें दुर्ग परिसर में इधर-उधर बिखरी पड़ी है। मानसिंह महल के ठीक नीचे आम रास्ते की तरफ ऊंचाई पर झरोखे बने हुए हैं जो कि प्रस्तर कला की उत्कृष्ट निशानी है। इसी महल में दो मंजिला रानी महल है। उसके चौक में भूमिगत बावड़ी बनी हुई है जोकि अब दशZको के लिये बन्द कर दी गई है। महल में बडे़-बडे़ कोठार बने हुए हैं जिनमें धान, घी आदि भरा रहता था महल के पीछे पगडण्डियों से रास्ता शिव मिन्दर की ओर जाता है। जहां एक श्वेत प्रस्तर का विशाल शिवलिंग स्थित है। मिन्दर के पिछवाडे में बावड़ी की तरफ एक रास्ता जाता है जहां पर चामुण्डा देवी का मिन्दर बना हुआ है। इस मिन्दर में एक शिलालेख लगा हुआ है जिसमें युद्ध से घिरे हुए राजा कान्हड़देव को देवी भगवती द्वारा चमत्कारिक रूप से तलवार पहुंचाने की सूचना उत्कीर्ण है। वीरमदेव की चौकी पहाड़ी की सबसे ऊंची जगह पर दक्षिण पूर्व ही ओर स्थित है। यहां से बहुत दूर-दूर तक का दृश्य देखा जा सकता है। यहां जालोर राज्य का ध्वज लगा रहता था। वर्तमान में इसके पास ही एक मिस्जद है। अंग्रेजों के विरुद्ध किए गए स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान गणेशलाल व्यास, मथुरादास माथुर, फतहराज जोशी एवम् तुलसीदास राठी आदि नेताओं को इसी किले में नजरबन्द किया गया था।इसलिए भी है विशेष महत्त्व जालोर दुर्ग मारवाड़ का सुदृढ़ गढ़ है। इसे परमारों ने बनवाया था। यह दुर्ग क्रमश: परमारों, चौहनों और राठौड़ों के आधीन रहा। यह राजस्थान में ही नही अपितु सारे देश में अपनी प्राचीनता, सुदृढ़ता और सोनगरा चौहानों के अतुल शौर्य के कारण प्रसिद्ध रहा है। जालौर जिले का पूर्वी और दक्षिणी भाग पहाड़ी शृंखला से आवृत है। इस पहाड़ी श्रृंखला पर उस काल में सघन वनावली छायी हुई थी। अरावली की श्रृंखला जिले की पूर्वी सीमा के साथ-साथ चली गई है तथा इसकी सबसे ऊँची चोटी ३२५३ फुट ऊँची है। इसकी दूसरी शाखा जालौर के केन्द्र भाग में फैली है जो २४०८ फुट ऊँची है। इस श्रृंखला का नाम सोनगिरि है। सोनगिरि पर्वत पर ही जालौर का विशाल दुर्ग विद्यमान है। प्राचीन शिलालेखों में जालौर का नाम जाबालीपुर और किले का नाम सुवर्णगिरि मिलता है। सुवर्णगिरि शब्द का अपभ्रंशरुप सोनलगढ़ हो गया और इसी से यहां के चौहान सोनगरा कहलाए। जहां जालौर दुर्ग की स्थिति है उस स्थान पर सोनगिरि की ऊँचाई २४०८ फुट है। यहां पहाड़ी के शीर्ष भाग पर ८०० गज लम्बा और ४०० गज चौड़ा समतल मैदान है। इस मैदान के चारों ओर विशाल बुजाç और सुदृढ़ प्राचीरों से घेर कर दुर्ग का निर्माण किया गया है। गोल बिन्दु के आकार में दुर्ग की रचना है जिसके दोनों पार्श्व भागों में सीधी मोर्चा बन्दी युक्त पहाड़ी पंक्ति है। दुर्ग में प्रवेश करने के लिए एक टेढ़ा-मेढ़ा रास्ता पहाड़ी पर जाता है। अनेक सुदीर्घ शिलाओं की परिक्रमा करता हुआ यह मार्ग किले के प्रथम द्वार तक पहुँचता है। किले का प्रथम द्वार बड़ा सुन्दर है। नीचे के अन्त: पाश्वाç पर रक्षकों के निवास स्थल हैं। सामने की तोपों की मार से बचने के लिए एक विशाल प्राचीर धूमकर इस द्वार को सामने से ढक देती है। यह दीवार २५ फुट ऊँची एंव १५ फुट चौड़ी है। इस द्वार के एक ओर मोटा बुर्ज और दूसरी ओर प्राचीर का भाग है। यहां से दोनों ओर दीवारों से घिरा हुआ किले का मार्ग ऊपर की ओर बढ़ता है। ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं नीचे की गहराई अधिक होती जाती है। इन प्राचीरों के पास मिट्टी के ऊँचे स्थल बने हुए हैं जिन पर रखी तोपों से आक्रमणकारियों पर मार की जाती थी। प्राचीरों की चौड़ाई यहां १५-२० फुट तक हो जाती है। इस सुरक्षित मार्ग पर लगभग आधा मील चढ़ने के बाद किले का दूसरा दरवाजा दृष्टिगोचर होता है। इस दरवाजे का युद्धकला की दृष्टिकोण से विशेष महत्व है। दूसरे दरवाजे से आगे किले का तीसरा और मुख्य द्वार है। यह द्वार दूसरे द्वारों से विशालतर है। इसके दरवाजे भी अधिक मजबूत हैं। यहां से रास्ते के दोनों ओर साथ चलने वाली प्राचीर श्रंखला कई भागों में विभक्त होकर गोलाकार सुदीर्घ पर्वत प्रदेश को समेटती हुई फैल जाती है। तीसरे व चौथे द्वार के मध्य की भूमि बड़ी सुरक्षित है। प्राचीर की एक पंक्ति तो बांई ओर से ऊपर उठकर पहाड़ी के शीर्ष भाग को छू लेती है तथा दूसरी दाहिनी ओर घूमकर मैदानों पर छाई हुई चोटियों को समेटकर चक्राकार घूमकर प्रथम प्राचीर की पंक्ति से आ मिलती है। यहां स्थान-स्थान पर विशाल एंव विविध प्रकार के बुर्ज बनाए गए हैं। कुछ स्वतंत्र बुर्ज प्राचीर से अलग हैं। दोनों की ओर गहराई ऊपर से देखने पर भयावह लगती है। जालौर दुर्ग का निर्माण परमार राजाओं ने १०वीं शताब्दी में करवाया था। पश्चिमी राजस्थान में परमारो की शक्ति उस समय चरम सीमा पर थी। धारावर्ष परमार बड़ा शक्तिशाली था। उसके शिलालेखों से, जो जालौर से प्राप्त हुए हैं, अनुमान लगाया जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण उसी ने करवाया था। वस्तुकला की दृष्टि से किले का निर्माण हिन्दु शैली से हुआ है। परंतु इसके विशाल प्रांगण में एक ओर मुसलमान संत मलिक शाह की मस्जिद है। जालौर दुर्ग में जल के अतुल भंड़ार हैं। सैनिकों के आवास बने हुए हैं। दुर्ग के निर्माण की विशेषता के कारण तोपों की बाहर से की गई मार से किले के अन्त: भाग को जरा भी हानि नही पहुँची है। किले में इधर-उधर तोपें बिखरी पड़ी हैं। ये तोपों विगत संघर्षमय युगों की याद ताजा करतीं है। १२वीं शताब्दी तक जालौर दुर्ग अपने निर्माता परमारों के अधिकार में रहा। १२वीं शताब्दी में गुजरात के सोलंकियों ने जालौर पर आक्रमण करके परमारों को कुचल दिया और परमारों ने सिद्धराज जयसिंह का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया। सिद्धराज की मृत्यु के बाद कीर्कित्तपाल चौहान ने दुर्ग को घेर लिया। कई माह के कठोर प्रतिरोध के बाद कीर्कित्तपाल इस दुर्ग पर अपना अधिकार करने में सफल रहा। कीर्कित्तपाल के पश्चात समर सिंह और उदयसिंह जालौर के शासक हुए। उदय सिंह ने जालौर में १२०५ ई० से १२४९ ई० तक शासन किया। गुलाम वंश के शासक इल्तुतमिश ने १२११ से १२१६ के बीच जालौर पर आक्रमण किया। वह काफी लंबे समय तक दुर्ग का घेरा डाले रहा। उदय सिंह ने वीरता के साथ दुर्ग की रक्षा की पंरतु अन्तोगत्वा उसे इल्तुतमिश के सामने हथियार डालने पड़े। इल्लतुतमिश के साथ जो मुस्लिम इतिहासकार इस घेरे में मौजूद थे, उन्होंने दुर्ग के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए कहा है कि यह अत्यधिक सुदृढ़ दुर्ग है, जिनके दरवाजों को खोलना आक्रमणकारियों के लिए असंभव सा है।जालौर के किले की सैनिक उपयोगिता के कारण सोनगरा चौहान ने उसे अपने राज्य की राजधानी बना रखा था। इस दुर्ग के कारण यहां के शासक अपने आपको बड़ा बलवान मानते थे। जब कान्हड़देव यहां का शासक था, तब १३०५ ई० में अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर आक्रमण किया। अलाउद्दीन ने अपनी सेना गुल-ए-बहिश्त नामक दासी के नेतृत्व में भेजी थी। यह सेना कन्हड़देव का मुकाबला करने में असमर्थ रही और उसे पराजित होना पड़ा। इस पराजय से दुखी होकर अलाउद्दीन ने १३११ ई० में एक विशाल सेना कमालुद्दीन के नेतृत्व में भेजी लेकिन यह सेना भी दुर्ग पर अधिकार करने में असमर्थ रही। दुर्ग में अथाह जल का भंड़ार एंव रसद आदि की पूर्ण व्यवस्था होने के कारण राजपूत सैनिक लंबे समय तक प्रतिरोध करने में सक्षम रहते थे। साथ ही इस दुर्ग की मजबूत बनावट के कारण इसे भेदना दुश्कर कार्य था। दो बार की असफलता के बाद भी अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर अधिकार का प्रयास जारी रखा तथा इसके चारों ओर घेरा डाल दिया। तात्कालीन श्रोतों से ज्ञात होता है कि जब राजपूत अपने प्राणों की बाजी लगा कर दुर्ग की रक्षा कर रहे थे, विक्रम नामक एक धोखेबाज ने सुल्तान द्वारा दिए गए प्रलोभन में शत्रुओं को दुर्ग में प्रवेश करने का गुप्त मार्ग बता दिया। जिससे शत्रु सेना दुर्ग के भीतर प्रवेश कर गई। कन्हड़देव व उसके सैनिकों ने वीरता के साथ खिलजी की सेना का मुकाबला किया और कन्हड़देव इस संघर्ष में वीर गति को प्राप्त हुआ। कन्हड़देव की मृत्यु के पश्चात भी जालौर के चौहानों ने हिम्मत नही हारी और पुन: संगठित होकर कन्हड़देव के पुत्र वीरमदेव के नेतृत्व में संघर्ष जारी रखा परंतु मुठ्ठी भर राजपूत रसद की कमी हो जाने के कारण शत्रुओं को ज्यादा देर तक रोक नही सके। वीरमदेव ने पेट में कटार भोंककर मृत्यु का वरण किया। इस संपूर्ण घटना का उल्लेख अखेराज चौहान के एक आश्रित लेखक पदमनाथ ने "कन्हड़देव प्रबंध" नामक ग्रंथ में किया है। महाराणा कुंभा के काल (१४३३ ई० से १४६८ ई०) में राजस्थान में जालौर और नागौर मुस्लिम शासन के केन्द्र थे। १५५९ ई० में मारवाड़ के राठौड़ शासक मालदेव ने आक्रमण कर जालौर दुर्ग को अल्प समय के लिए अपने अधिकार में ले लिया। १६१७ ई० में मारवाड़ के ही शासक गजसिंह ने इस पर पुन: अधिकार कर लिया। १८वीं शताब्दी के अंतिम चरण में जब मारवाड़ राज्य के राज सिंहासन के प्रश्न को लेकर महाराजा जसवंत सिंह एंव भीम सिंह के मध्य संघर्ष चल रहा था तब महाराजा मानसिंह वर्षों तक जालौर दुर्ग में रहे। इस प्रकार १९वीं शताब्दी में भी जालौर दुर्ग मारवाड़ राज्य का एक हिस्सा था। मारवाड़ राज्य के इतिहास में जालौर दुर्ग जहां एक तरफ अपने स्थापत्य के कारण विख्यात रहा है वहीं सामरिक व सैनिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण रहा है।

Padharo Mahare Desh

Padharo Mahare Desh

Marwadi Marriges

Marwadi Marriges

Glory of Marwad

Glory of Marwad

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Colour's of Marwad

Colour's of Marwad



Yuoth Ki Awaaz

Youth Ki Awaaz: Mouthpiece for the Youth